आदिवासी नृत्य महोत्सव के अंतिम दिन बघरवाल, हन्ना, मरायुराट्टम, संथाली नृत्य सहित बस्तर के गौर नृत्य की रही धूम

रायपुर। राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव के अंतिम दिन उत्तराखण्ड, उत्तरप्रदेश, आन्ध्रप्रदेश, झारखण्ड सहित छत्तीसगढ़ के बस्तर के गौर नृत्य का प्रदर्शन मंच से हुआ, जिसमें कलाकारों ने अपने अप्रतिम नृत्य के हुनर का प्रदर्शन किया। एक ओर जहां उत्तराखण्ड से आए कलाकारों ने सैन्य पराक्रम पर आधारित बघरवाल नृत्य किया, वहीं केरल के मरायुराट्टम नृत्य ने प्रदेश के जवांरा पर्व की याद दिला दी। इसी प्रकार उत्तरप्रदेश के हन्ना नृत्य और हो व संथाली समुदाय के नर्तकों ने पारम्परिक विवाह उत्सव का प्रदर्शन गीत-संगीत से किया। इसके अलावा उत्तर प्रदेश के गरद नृत्य, माड़िया जनजाति का गौर व मांदरी नृत्य और आंध्रप्रदेश के डब्रू नृत्य के उत्कृष्ट प्रदर्शन ने दर्शकों को झूमने पर विवश कर दिया।

तीन दिवसीय महोत्सव के समापन दिवस पर स्थानीय साइंस कॉलेज मैदान परिसर में आयोजित सुबह से देश-प्रदेश से आये कलाकारों ने आदिवासी जनजातियों पर आधारित नृत्य कला का प्रदर्शन किया। इसी क्रम में देवभूमि उत्तराखण्ड से आए पुरूष कलाकारों ने हाथों में तलवार और ढाल लेकर विशेष अंदाज में शारीरिक भाव-भंगिमा का प्रदर्शन किया, वहीं महिलाएं आकर्षक पारम्परिक परिधानों के साथ नृत्य करती नजर आईं। इस नृत्य के माध्यम से शिव आराधना को भी दर्शाया गया। इसके बाद केरल राज्य से आए नर्तकों ने मरायुराट्टम नृत्य किया। इस नृत्य में छत्तीसगढ़ के जवांरा की भांति कलाकार झूपते नजर आए। महिला नर्तक खुले केश के साथ हाथों में लम्बी छड़ी लिए हुए एक ताल में नाचती रहीं। वहीं छड़ी को अलग-अलग अंदाज में घुमाकर नृत्यांगनाएं नाचती नजर आईं। उत्तरप्रदेश से आए कलाकारों ने मंच साझा करते हुए हन्ना नृत्य विशिष्ट अंदाज में किया। इसमें शामिल महिलाएं कमर के निचले हिस्से में लाचा तथा सिर पर दुपट्टा लिए हुए नृत्य कर रही थी, वहीं पुरूष नर्तकों ने सफेद कुर्ता और सफेद टोपी पहनकर टहनीनुमा लकड़ी में रंग-बिरंगे कपड़ों के टुकड़े बांधकर हास्य मुद्रा में नृत्य किया। इसके उपरान्त झारखण्ड के कलाकारों ने हो एवं संथाली जनजाति द्वारा विवाह के रस्मों-रिवाजों को नृत्य की भाव मुद्रा के माध्यम से प्रदर्शित किया। इस नृत्य की खासियत है कि वर के घर वधू पक्ष बारात लेकर जाता है, जिसमें वाद्य यंत्रों का प्रयोग मंत्रोच्चार के समान माना जाता है। यह नृत्य छत्तीसगढ़ की उरांव जनजाति के सरहुल नृत्य के समान प्रतीत हुआ। इसी तारतम्य में उत्तरप्रदेश के वाराणसी और सोनभद्र के गोंड़ जनजाति के कलाकारों ने वीरता और उत्साह पर आधारित गरद नृत्य किया, इसमें युवक शारीरिक कौशल और करतब के माध्यम से युवतियों को आकर्षित करने के लिए युद्ध कला का प्रदर्शन करते हैं। इसमें प्रयुक्त होने वाले वाद्य यंत्र छत्तीसगढ़ के गाड़ा बाजा के समान थे, जिसमें गुदूम, मोहरी और ताशा, झांझ की ताल पर नर्तक झूमते नजर आए।

छत्तीसगढ़ के माड़िया जनजाति के द्वारा विभिन्न उत्सवों में किया जाने वाला गौर नृत्य का पारंपरिक लोक वाद्य यंत्र तुरही व मांदर की थाप पर गोंडी गीत में थिरकते हुए कलाकारों ने सम्मोहक प्रस्तुति दी। पुरूष नर्तक मोर की कलगी, कौड़ियों से लकदक बायसन की सींग से बने मुकुट पहने हुए तथा महिलाएं हाथों में घुंघरूयुक्त छड़ी के साथ एक ताल में थिरकीं। इस नृत्य की खासियत यह है कि लय-परिवर्तन के साथ ही नर्तक अपने नृत्य की गति में भी बदलाव लाते हैं। इसी तरह बस्तर के कोंडागांव के विख्यात गौर मांदरी नृत्य में युवा नर्तकों ने गौर का अपने पारम्परिक शस्त्र तीर-धनुष से शिकार करते हुए नृत्य करते रहे। इसके बाद आंध्रप्रदेश के नर्तकों ने तासे की थाप पर डब्रू नृत्य कर कतरब कौशल का प्रदर्शन किया। इसी प्रदेश के नर्तक धिमसा नृत्य की विशिष्ट शैली में रंग-बिरंगे पारम्परिक वेशभूषा में थिरकते रहे।

संबंधित समाचार

Leave a Comment

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.