रायपुर। राष्ट्रीय शोध-संगोष्ठी आदिवासी अस्मिता: कल, आज और कल, के तीसरे दिन प्रदेश के आबकारी मंत्री कवासी लखमा ने कहा कि आदिवासियों के और अधिकारों के लिए एकजुट होना होगा। प्रदेश प्राकृतिक संसाधनों और खनिज संपदा सम्पन्न हैं, जो प्रदेश के विकास में महत्वपूर्ण कड़ी है। आदिवासी प्राकृतिक संसाधनों को सहजने का कार्य करते हैं, लेकिन अधिकांश जगहों पर आदिवासियों को अपनी जमीन का पट्टा नहीं बन पाया है। शासन ने सभी को जमीन का पट्टा देने का निर्णय लिया है। माननीय सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले से 10 लाख 80 हजार आदिवासियों को जंगल से बेदखल करने का आदेश से आदिवासी व्यथित है। मंत्री श्री लखमा ने कहा कि इस आदेश से छत्तीेसगढ में 2 लाख 80 हजार आदिवासी भी प्रभावित हो रहे हैं। इस आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में छत्तीसगढ़ सरकार ने स्टे लिया है। मंत्री श्री लखमा ने कहा कि आदिवासी प्रकृति पर आधारित फसल बोने से लेकर काटने और शादी जैसे रस्मों को उत्सव के रुप में मनाते हैं। इस तरह की शोध संगोष्ठी का आयोजन बस्तर और सरगुजा संभाग में भी आयोजित किया जाएं। कार्यक्रम में विधानसभा उपाध्यक्ष मनोज मंडावी भी उपस्थित रहें।
मासिक पत्रिका ‘गोडवाना स्वदेश’ के तत्वधान में 27 से 29 दिसंबर तक आयोजित तीन दिवसीय राष्ट्रीय शोध-संगोष्ठी गढ़बों नवा छत्तीसगढ़ के थीम पर आधारित “आदिवासी अस्मिता: कल, आज और कल” विषय पर देश भर के विश्वविद्यालयों से आए प्रोफेसर, शोधार्थी एवं बुद्धजीवीगण अपने शोध-आलेख एवं आदिवासी समस्याओं के चिंतन पर मंथन करने शामिल हुये हैं। आज संगोष्ठी का तीसरा और समापन का दिन रहा है ।
कार्यक्रम के आयोजन में छत्तीसगढ़ शासन के ‘संस्कृति विभाग’ एवं ‘आदिमजाति विकास विभाग’ का विशेष सहयोग रहा। गढ़बों नवा छत्तीसगढ़ के नवसृजन के लिए प्रतिबद्ध प्रदेश के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और संस्कृति एवं खाद्य मंत्री अमरजीत भगत के मार्गदर्शन में “आदिवासी अस्मिता: कल, आज और कल” पर आधारित राष्ट्रीय स्तर पर पहली बार रायपुर में शोध-संगोष्ठी का आयोजन किया गया है। इस संगोष्ठी में देश के प्रख्यात केंद्रीय विश्वविद्यालय जामिया मिलिया इस्लामिया, दिल्ली विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय दिल्ली, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय आदिवासी विश्वविद्यालय अमरकंटक, टाटा इन्स्टीट्यूट ऑफ सोसल साइंस मुंबई, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय, शांति निकेतन विश्वविद्यालय कोलकाता, गुजरात विश्वविद्यालय, केंद्रीय विश्वविद्यालय ओडिशा, गुरुघासीदास विश्वविद्यालय बिलासपुर, पं. रविशंकर विश्वविद्यालय, बस्तर विश्वविद्यालय जगदलपुर एवं मानवविज्ञान सर्वेक्षण संस्थान जगदलपुर के विषय विशेषज्ञ, प्रोफेसर एवं सैकड़ों शोधार्थियों ने अपना शोध-पत्र एवं आलेख वाचन किया। प्रतिभागियों को प्रमाण पत्र का वितरण किया गया।
संगोष्ठी के तृतीय दिवस में प्रथम सत्र में आदिवासी आराध्य, धर्म,संस्कृति, उत्सव एवं लोक परंपरा पर वक्ताओं ने अपने विचार रखे। आदिवासी चिंतक एवं युवा लेखक डॉ. हरीश मरकाम ने आदिवासी अस्मिता के कई रुपों की चर्चा की। उन्होंने आज के संदर्भ में कहा कि धर्म, सत्तो और व्यापार इन दिनों का मूल्यांकन करना जरुरी हैं। उन्होंने कहा कि दुनिया में दो प्रकार की लिखित एवं मौखिक व्यवस्था कायम है। आदिवासियों की पूरी व्यवस्था मौखिक है। वे लिखित व्यवस्था को अधूरी और झुठी व्यवस्था मानते हैं। डॉ मरकाम ने कहा कि दुनिया को बदलने के लिए बुद्विमता की नहीं बल्कि सहजता की जरुरत है। तभी आदिवासी समाज बचा रहेगा।
बस्तर के आदिवासी सामाजिक कार्यकर्ता माखनलाल शौरी ने कहा कि आदिवासी समुदाय को समझने के लिए उनके रहन-सहन बोली परम्परा और संस्कृति को समझना जरूरी है। वे हजारों वर्षों से प्रकृति की नजदीक, नदी, पहाड़ और जंगलों से जुड़े हुए हैं। शासकीय गुंडाधुर महाविद्यालय कोंडागांव के प्राचार्या डॉ. किरण नुरेटी ने आदिवासियों के जीवन पर आधारित ध्यान पद्वतियों, मनोवैज्ञानिक चिकित्सा्, प्राकृतिक चिकित्सा पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि प्रकृति शक्ति ही सर्वशक्ति मान है। इसलिए प्रकृति का बचाव करना जरुरी है। झारखंड के मानव वैज्ञानिक डॉ. शब्बीर हुसैन ने छत्तीसगढ़ के आदिवासियों की कुपोषण समस्या पर चिंता व्यक्त किया। यहां 52 प्रतिशत से अधिक आदिवासी बच्चे कुपोषण और ज्यादातर महिलाएं एनिमिया के शिकार हैं।
